Friday, August 03, 2018

लद्दाख डायरी, सरचू से लेह Ladakh Diary, sharcu to leh


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सरचू की ठण्ड भरी रात किसी तरह से काटने के बाद सुबह छः बजे हमारी आँख खुली। बाहर अभी भी बहुत ठण्ड थी। तभी टेंट वाले ने सभी टेंटों में  चाय भिजवाई और सुबह के नाश्ते के लिए किचन में आने को बोल गया। ठण्ड के माहौल में गर्म रजाइयों में दुबक कर चाय पीने के आनंद को बयां नहीं किया जा सकता इसे केवल महसूस ही किया जा सकता है।
चाय पी कर बारी बारी से हमने उस पाश्चात्य शैली के बने कमोड का उपयोग किया जिसके लिए हम भरतपुर की जगह सरचू में रुके थे। पानी इतना ठंडा था कि हाथ धोते ही ऐसा लगा मानो किसी ने सैकड़ो सुइयां एक साथ  मेरे हाथो में घुसा दी हो। हमने अपना सारा सामान समेटा और टेंट छोड़ कर किचन में पहुँच गए। किचन में पीने के लिया गर्म पानी रखा हुआ दिखाई दिया तो लगे हाथ हमने वही टेंट के बाहर ब्रस भी कर लिया। इस ठण्ड भरे माहौल में तो नहाने का सवाल ही नहीं उठता था खास तौर पर मेरे लिए। पर मैं ये दावे के साथ कह सकता हूँ की नहाने का ये कठिन सवाल  विनोद और  डॉक्टर राहुल के भी बस का नहीं था। नाश्ते में ब्रेड मक्खन और ब्रेड ऑमलेट था जिसे हमने आदर पूर्वक अपने पेट में जगह दी और उसके बाद एक एक प्याली गर्म चाय ने हमें आगे की यात्रा के लिए उत्साह से भर दिया।

टेंट वाले का हिसाब चुकता कर हम अपने वाहन के पास पहुँच गए। तब तक थोड़ी थोड़ी धुप भी निकलने लगी थी। रात के कड़ाके की ठण्ड के बाद सुबह की गुनगुनी धूप बहुत ही अच्छी लग रही थी। सरचू हिमांचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर के बीच एक बॉर्डर की तरह है। सरचू से हो के "सारप" नदी बहती है। ये नदी बारालाचा ला दर्रे के पास से ही निकलती है और जंस्कार वैली में चली जाती है। सरचू के आगे इस नदी पर पूल बना हुआ है जिसके दूसरी तरफ जम्मू कश्मीर राज्य शुरू हो जाता है। कल हमने दो दर्रो रोहतांग और बारालाचा को पार किया था और आज हमें मनाली लेह हाइवे के बाकी बचे तीन दर्रो नकी ला, लाचलुंग ला और तंगलंग ला को पार करके लेह जाना था। ये तीनो दर्रे जम्मू कश्मीर राज्य के अंतर्गत आते है।

गाड़ी के पास पहुंचने पर हमने देखा की ड्राइवर टंडी से लाया हुआ डीज़ल गाड़ी की टंकी में डाल रहा था। कुछ ही देर में टंकी फुल हो गई और हमारी गाड़ी लेह जाने के लिए तैयार हो गई। सरचू से आगे का रास्ता हिचकोलों से भरा हुआ था। रास्ते में सेना के कुछ कैंप भी दिखे। एक जगह रास्ते में एक बोर्ड लगा था कि " सेटेलाइट फोन का प्रयोग भारत में प्रतिबंधित है, इसका प्रयोग करते पकडे जाने पर सजा का प्रावधान है"।

मुझे लगा कुछ विदेशी सैलानी अपने साथ सेटेलाइट फ़ोन लाते होंगे। बहुत से देशो में सेटेलाइट फ़ोन बहुत आम है पर भारत में इस पर प्रतिबन्ध है। खैर जो भी हो पर सेटेलाइट फ़ोन ऐसी दुर्गम जगहों पर जान बचाने का ज़रिया हो सकता है जहाँ मोबाइल नेटवर्क नहीं आता है। यहाँ पर चाइना बॉर्डर से नजदीकी के कारण सुरक्षा की दृष्टि से यह प्रतिबन्ध उचित ही होगा। लेकिन पुरे भारत में प्रतिबंध का क्या कारण है ये तो भारत सरकार ही जाने।

अब हम नदी पार करके जम्मू कश्मीर राज्य में चल रहे थे। हिमांचल पीछे छुटा जा रहा था। सड़क बिलकुल नदी के साथ साथ ही थी । अचानक से ऊंचाई बढ़ने लगी और एक के बाद एक हेयर पिन बेंड आने लगे। हेयर पिन बेंड वो मोड़ होते है जिसमे सड़क एक दम से 180 डिग्री पर मुड़ी होती है। अचानक मुझे याद आया हम गाटा लूप पर है। गाटा लूप मनाली लेह मार्ग का सबसे खतरनाक भाग है। यहाँ एक के बाद एक 21 लूप या हेयर पिन बेंड आते है और हम इन लूपो पर चढ़ते चढ़ते 4190 मीटर की ऊंचाई से 4667 मीटर की ऊंचाई पर पहुँच गए। कुछ दूर और चलने पर हम  मनाली लेह हाइवे के तीसरे दर्रे "नकी ला" पर  पहुँच गए थे। इस दर्रे की ऊंचाई 4739 मीटर की है।

यहाँ आपको बताते चले कि गाटा लूप के बारे में एक डरावनी कहानी सुनने को मिलती है। आप में से बहुतों को इस कहानी के बारे पता होगा पर जो लोग नहीं जानते है उनके लिए मैं ये कहानी लिख रहा हूँ। करीब बीस पचीस साल पहले की  बात है सर्दियां शुरू हो रही थी और बर्फ़बारी की वजह से लेह मनाली हाइवे बंद होने वाला था। एक ट्रक ड्राइवर अपने सहयोगी के साथ गाटा लूप पार कर रहा था तभी उसका ट्रक कुछ खराबी की वजह से बंद पड़ गया। ड्राइवर ने अपने स्तर से ट्रक को ठीक करने की बहुत कोशिश की पर वह सफल नहीं हुआ। तब उसने अपने सहयोगी को ट्रक की देखभाल करने के लिए वही छोड़ खुद पास के एक गांव में मकैनिक को बुलाने चला गया। वो गांव भी वहां से तीन दिन की दूरी पर था। इसी बीच भयंकर बर्फ़बारी होने लगी और सभी रस्ते बर्फ की वजह से बंद हो गए। ड्राइवर एक हफ्ते बाद जरुरी मदद ले के ट्रक के पास पहुंचा तब तक उसके सहयोगी की भूख प्यास और अत्यधिक ठण्ड की वजह से मृत्यु हो चुकी थी। ड्राइवर ने अपने सहयोगी का वही अंतिम संस्कार कर दिया। बाद में गाटा लूप पर लोगो को अक्सर एक लड़का दिखाई पड़ने लगा जो लोगो से पानी मांगता था। किवदंती है कि जो लोग उस लड़के को पानी नहीं देते थे उनके साथ कोई न कोई हादसा हो जाता था। बाद में उस लड़के की आत्मा की शांति के लिए वहां एक छोटा सा स्थान बना दिया गया जिस पर गाटा लूप से गुजरने वाले लोग पानी की बोतलें रखने लगे। इस के बाद लोगो को वो लड़का दिखना बंद हो गया। इस कहानी में कितनी सच्चाई है ये तो भगवान ही जाने।

नकी ला दर्रा पार करने के बाद अब हम इस हाईवे के चौथे दर्रे लाचलुंग ला की तरफ जा रहे थे। लाचलुंग ला दर्रे की ऊंचाई 5059 मीटर की है। पार करने के लिहाज से यह एक अपेक्षाकृत आसान दर्रा है। क्योकि हम पहले से ही 4700 मीटर की ऊंचाई पर थे और हमें बहुत ज्यादा चढाई करने की आवश्यकता नहीं थी। इस दर्रे पर बर्फ भी नाम मात्र की थी। अगर आप ध्यान न दे तो आप को पता भी नहीं चलेगा कि कब आप ने ये दर्रा पार कर लिया।

लाचलुंग ला दर्रा पार करने के बाद अब हमारा अगला पड़ाव "पांग" था। जहाँ हमें खाने पीने के लिए कुछ मिल सकता था।
पांग सरचू से अस्सी किलोमीटर की दूरी पर है और लाचलुंग ला से मात्र चौबीस किलोमीटर दूर है। करीब डेढ़ दो घंटे बाद हम पांग पहुँच गए। पांग में बहुत से टेंट है जो तिब्बती मूल के लोगो द्वारा लगाए गए है। पांग के टेंट आकार में काफी बड़े है, और बहुत ही बेसिक सुविधाओं वाले है। यहाँ पर खाने के लिए चावल दाल, मैग्गी और चाय इत्यादि मिल जाता है। इसके अलावा यहाँ से बिस्किट के पैकेट पानी की बोतल भी खरीदी जा सकती है। यहाँ रात को सोने के लिए बिस्तर और राजाइयाँ भी रहती है जिसका उचित किराया दे कर उपयोग किया जा सकता है। पांग 4600 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहाँ टेंट वाले, पर्यटक सीजन में अपने परिवार के साथ अपना अपना टेंट लगाते है और पर्यटक सीजन खत्म होने पर अपने गांव वापिस चले जाते है। पांग में भी एक चेकपोस्ट है जहाँ विदेशी सैलानियों को अपनी एंट्री करवानी पड़ती है।


सुबह का नाश्ता अब पेट में दम तोड़ चूका था और बड़े जोर की भूख लग आई थी। हमने यहाँ मैग्गी खाई और चाय पी। सरचू के बाद पांग ही ऐसी जगह है जहाँ रात बिताई जा सकती है पर यहाँ रात में रुकने से बचाना चाहिए क्योंकि इसकी ऊंचाई सरचू से ज्यादा है और इसलिए यहाँ AMS यानी माउंटेन सिकनेस का खतरा सरचू की अपेक्षा ज्यादा होता है। पेट पूजा करने के बाद हम पांग से लेह की तरफ निकल पड़े। मुश्किल से पांच छः किलोमीटर चलने के बाद ही हम एक अलग दुनिया में पहुँच गए।

अब तक हमारी गाड़ी बीस पचीस किलोमीटर/घंटे की स्पीड पर रेंग रही थी तभी अचानक से हमारी गाड़ी साठ सत्तर किलोमीटर/घंटे की धडल्लेदार स्पीड से दौड़ने लगी। दरअसल यहाँ से तंगलंग ला तक का भू भाग "मूर प्लेन" के नाम से जाना जाता है। ये 4800 मीटर की ऊंचाई पर दोनों ओर पहाड़ो से घिरा एक बहुत बड़ा समतल इलाका है। ये करीब चालीस किलोमीटर तक फैला हुआ है। कल्पना करिये आप चार चार ऊँचे दर्रो को पार करते हुए उबड़ खाबड़ रास्तो और गहरी खाइयो से जूझते हुए मनाली से 350 किलोमीटर दूर आ चुके है तभी आपको चालीस किलोमीटर लंबा और  मीलो चौड़ा सपाट मैदान मिल जाता है। जहाँ आप अपनी गाड़ियों को बिना रोक टोक दौड़ाये जा रहे है। इस मैदान में कोई गांव नहीं कोई आबादी नहीं है। चाहे तो सरकार यहाँ खेल गांव बसा के शीत कालीन ओलंपिक करवाले। क्या अद्भुत रचना है प्रकृति की।

हम सरपट तंगलंग ला की तरफ बढे जा रहे थे। तंगलंग ला से कुछ पहले एक रास्ता "सो मोरीरी" और "सो कार" झील की तरफ जाता है पर इन जगहों पर जाने के लिए लेह से परमिट बनवाना पड़ता है। तंगलंग ला संसार की दूसरी सबसे ऊंची मोटर चलने योग्य सड़क है और मनाली लेह हाइवे का सबसे ऊंचा स्थान भी है। इस दर्रे की ऊंचाई 5328 मीटर की है। इस दर्रे के द्वारा आपके वाहन और आपकी कड़ी परीक्षा ली जाती है। अत्यधिक ऊंचाई और ऑक्सीजन की कमी आप पर  और आप के वाहन पर नकारात्मक प्रभाव डालती है। तंगलंग ला के टॉप पर पहुंच कर हमने अपनी गाड़ी रुकवाई और कुछ फोटो खिंचे। दर्रे के टॉप पर एक मंदिर भी था। हमने मंदिर में अपने शीश नवाये और आगे की सकुशल यात्रा के लिए आशीर्वाद भी माँगा।

तंगलंग ला पर पांच दस मिनट की तफरी करने में ही मेरे सर में दर्द होने लगा और थकावट सी होने लगी। ऐसा शायद ऑक्सीजन की कमी के कारण हुआ था। ये दर्रा बारालाचा ला से ऊँचा है पर यहाँ बारालाचा ला जितनी बर्फ नहीं थी। शायद इसका कारण यहाँ बहुत तेज गति से हवा का बहना होगा। पंद्रह मिनट तक यहाँ का नजारा लेने के बाद हम तंगलंग ला के दूसरी तरफ उतरने लगे उतराई में हमें सड़क पर काफी बर्फ मिलने लगी। एक बुलडोजर इस बर्फ को सड़क से हटाता हुआ दिखाई पड़ा। अब यहाँ से लेह मात्र 110 किलोमीटर दूर ही रह गया था। और सड़को की हालत में सुधार होना शुरू हो गया था। मेरे हिसाब से ये सड़के बिलकुल नई बनी हुई थी। पर इस कठिन वातावरण में ये सड़क  कितने दिन ठीक रह पायेगी ये तो प्रभु ही जाने।

आगे के रास्ते में हमें कई छोटे छोटे स्तूप दिखाई पड़ने लगे जो सफ़ेद रंग में रंगे हुए थे। इन स्तुपो को देख कर अब यह लगने लगा की हमारी मंजिल लेह अब ज्यादा दूर नहीं है। रास्ते में हम एक छोटा सा गांव जिसका नाम "लातो" था वहां शाम के नाश्ते के लिए रुके। यहाँ का ढाबा वाला हमारे ड्राइवर का परिचित था। गांव में हरियाली थी और सड़क से लगे एक नाला भी बह रहा था। जब तक हमने वहां चाय बगैरह पी तब तक हमारे ड्राइवर ने नाले से पानी ले के गाड़ी को चमका दिया था। करीब एक घंटे के सफर के बाद हम "उपशी" के चेकपोस्ट पर पहुँच गए। यहाँ गाड़ियों से टोल वसूला जाता है और उनकी एंट्री भी की जाती है। चेकपोस्ट से आगे "इंडस" नदी जिसे सिंधु नदी भी कहते है, को पार करके हम उपसी कस्बे में पहुँच गए। ये सिंधु नदी वही नदी है जिसके किनारे सिंधु घाटी सभ्यता फली फूली। हड़प्पा और मोहनजोदाड़ो इस सभ्यता के प्रमुख नगर थे।

उपशी लेह से पचास किलोमीटर पहले एक अच्छी खासी आबादी वाला क़स्बा है जहाँ खाने पीने और रुकने की बढ़िया व्यवस्था है। यहाँ से रास्ता दो भागों में बट जाता है। एक तो लेह की तरफ चला जाता है और दूसरा संसार की तीसरी सबसे ऊंची मोटर चलने योग्य सड़क "चांग ला" से होते हुए तिब्बत की तरफ चली जाती है। हमने "लातो" गांव में नाश्ता कर लिया था तो हमें अब कही भी रुकना नहीं था। दो दिन लगातार चलने के बाद अब हम जल्दी से लेह पहुँचाना चाहते थे। उपसी से सोलह किलोमीटर आगे "कारू" नाम की जगह आती है। यहाँ पर भी खाने और रुकने की व्यवस्था उपलब्ध है। मनाली लेह हाइवे पर टंडी के बाद अगर कोई पेट्रोल पंप है तो वो कारू में ही है। अब शायद उपसी में कोई पेट्रोल पंप बन गया हो पर उसके बारे में मुझे जानकारी नहीं है।

कारू से लेह पैंतीस किलोमीटर ही रह जाता है। अब कारू से लेह तक के रास्ते भर में जगह जगह मानव आबादी और उनकी बसावट नजर आने लगी थी। जगह जगह आर्मी कैंप भी दिखाई पड़ने लगे थे। उपशी से लेह पहुंचने में हमें ज्यादा समय नहीं लगा क्योकि उपशी से लेह तक की सड़के बहुत ही शानदार बनी हुई थी। शाम के पांच साढ़े पांच बजे तक हम लेह के टैक्सी स्टैंड पर थे। टैक्सी स्टैंड से लगा हुआ लेह का बस अड्डा भी है।  गाड़ी वाले को किराए के पैसे दे कर हमने अपना सारा सामान गाड़ी से नीचे उतार लिया और अब हमें एक होटल की तलाश थी जहाँ हम अगले दो तीन दिन रुक सके।

पिछली यात्रा का अनुभव यहाँ काम आया और एक टैक्सी ले के हम फोर्ट रोड पहुँच गए। पिछली बार हम जिस होटल में रुके थे वहां सारे रूम बुक थे तो हम उसी होटल के नजदीक ही एक दूसरे होटल में गए और सात सौ रूपये प्रतिदिन के हिसाब का एक रूम ले लिया। जिसमे हम तीन लोगो के लिए तीन बेड लगे हुए थे। सामान कमरे में रख कर हमने थोड़ी देर आराम किया और शाम को मार्केट घूमने चले गये। थोड़ी देर घूम घाम कर हमने एक रेस्टोरेंट में रात का खाना खा लिया। सूरज डूबने के बाद यहाँ थोड़ी ठण्ड बढ़ गई थी। दो दिन के सफर के कारण काफी थकावट लग रही थी और कल रात सरचू में अच्छी नींद भी नहीं आयी थी तो हम खाना खाने के बाद सीधे अपने रूम में पहुचे और दिन भर के खींचे गए फोटोग्राफ को देखते हुए सोने की तैयारी करने लगे।
                           
आगे:- लेह और आस पास


गाटा लूप के खूबसूरत और खतरनाक लूप साभार गूगल बाबा।


पांग में।
पांग में मैग्गी खाते हुए।
मूर प्लेन का विशाल मैदान।
मूर प्लेन, यह फोटो गाड़ी में से लिया गया है।
तंगलंग ला पर।
तंगलंग ला पर मंदिर।
रास्ते से बर्फ हटाता बुलडोजर।
लातो गांव में गाड़ी की सफाई।
विनोद जी कुछ सोचते हुए।
डॉक्टर साहब राहुल जी।
लातो गांव की हरियाली।
उपशी का चेक पोस्ट।
रात को लेह में।
                  

8 comments:

  1. बढ़िया यात्रा रही । हम भी अभी 11-12 जुलाई को लेह से मनाली 100cc बाइक से गये थे । सारी जगह आंखों के सामने घूम गयी । शानदार यात्रा वृतांत

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  2. मुकेश जी मुझे भी एक बार बाइक से जाने का मन है पर उचित संयोग नहीं बन पा रहा है। धन्यवाद् आपको

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  3. बहुत सुन्दर यात्रा संस्मरण।

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  4. Interesting place with interesting story.... Superb

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