Thursday, July 26, 2018

लद्दाख डायरी ladakh diary केलांग से सरचू

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टंडी में गाड़ी की टंकी फुल करवाने के बाद हम केलांग की तरफ जा रहे थे तभी रास्ता दो भागों में बटा हुआ दिखाई दिया। एक रास्ता तो केलांग जा रहा था ये तो निश्चित था, पर दूसरा रास्ता कहा जा रहा था इसकी जिज्ञासा ने मुझे ड्राइवर से पूछने को बाध्य कर दिया। ड्राइवर ने बताया कि ये रास्ता उदयपुर होते हुए किलाड़ जाता है और किलाड़ में फिर से ये दो भागों में बट जाता है। किलाड़ से एक रास्ता जम्मू कश्मीर के किश्तवाड़ में निकलता है वही दूसरा हिमांचल प्रदेश के चम्बा में। उसने ये भी बताया कि इस रास्ते से जाने के लिए 4480 मीटर ऊँचा साच पास पर करना पड़ता है जो बहुत ही खतरनाक है।


चलिए अब इस रास्ते को छोड़ केलांग की तरफ चलते है। केलांग एक छोटा सा क़स्बा जैसा लगता है। लेकिन लाहुल घाटी के लिए यह एक प्रमुख नगर है जो पूरे लाहुल घाटी के दूर दराज बसे हुए गांवो की जरूरतो को पूरा करता है। यहाँ पर हर बजट के होटल उपलब्ध है। हम केलांग में आधे घंटे रुके रहे दरअसल हमारे ड्राइवर ने मनाली से कुछ सामान लोड किया था जिसे केलांग में एक दुकानदार  को डिलीवर करना था। मनाली में जहाँ बारिश की वजह से मौसम में नमी थी वही केलांग का मौसम एक दम रूखा सूखा सा था। केलांग में चारो तरफ देखने पर ऊँचे ऊँचे बर्फ से लदे पहाड़ दिखाई दे रहे थे। ये नजारा बहुत ही शानदार था। भविष्य में जब रोहतांग टनल पूरी हो जायेगी तो मैं ये दावे के साथ कह सकता हूँ कि मनाली आने वाले टूरिस्ट केलांग जरूर आया करेंगे और केलांग एक बड़ा टूरिस्ट स्पॉट बन कर उभरेगा।

केलांग से बाइस किलोमीटर की दूरी पर जिस्पा नाम का एक गांव है। यहाँ पर एक दो छोटे मोटे  होटल और कैंपिंग साइट्स है। रोहतांग के बाद केलांग तक लगातार उतराई थी लेकिन केलांग के बाद अब सड़क हमें ऊंचाई पर ले जा रही थी।केलांग से जिस्पा की सड़क बहुत ही शानदार बनी हुई थी। हम केलांग से करीब एक घंटे में जिस्पा पँहुच गए थे। जिस्पा की ऊंचाई 3360 मीटर है। सड़क के दाहिनी तरफ काफी नीचे भागा नदी अपनी हमजोली चंद्रा नदी से मिलने को व्यकुल सी बह रही थी। ये वही नदी है जिसका चंद्रा नदी के साथ संगम हम टंडी में देख के आ रहे थे। इसी भागा नदी के किनारे बहुत से टेंट लगे हुए दिखाई दे रहे थे जहाँ रात को रुका जा सकता है। यहाँ से आगे चलने पर जिस प्रकार  डाइनासोर पृथ्वी से विलुप्त हो गए थे उसी प्रकार जिस्पा की शानदार सड़क भी धीरे धीरे विलुप्त हो गई और हम धूल भरे बजरी की सड़क पर चलनें लगे। 

जिस्पा से छः किलोमीटर की दूरी पर दारचा गांव पड़ता है। यहाँ पर भी एक चेक पोस्ट है जिसमे विदेशी सैलानियों के पासपोर्ट चेक होते है। यहाँ भी कुछ टेंट लगे हुए थे जिसमें चाय नास्ता और खाना भी मिल रहा था। टेंट काफी बड़े थे और  उनमें यात्रीयो के लिये रात मे रुकने की भी व्यवस्था थी। दोपहर के लगभग दो बज रहे थे और मढ़ी में खाये हुए परांठे कब के पच पचा गए थे। हमें भूख तो लग ही रही थी सामने टेंट में परांठे बनते देख कर हमारी भूख और भी जोर मारने लगी थी। दस मिनट मे हमारी गाड़ी का ड्राइवर और सारे विदेशी सैलानी चेक पोस्ट से एंट्री करवाके वापस आ गए। तब ड्राइवर ने सब से कहा कि आप लोगो को जो कुछ खाना है खा लीजिये क्योकि अब भरतपुर या सरचू में ही खाना मिलेगा। अब किस बात की देरी थी हम तुरंत ढाबे में पहुचे और छः आलू के परांठो ऑर्डर दे दिया गया। जब तक परांठे बन कर तैयार हुए हमने वही करीने से लगे बिस्तरों पर अपनी टेढ़ी हो चुकी पीठ को सीधा कर लिया। दो परांठो में मेरा पेट तो भर गया पर विनोद और राहुल जो डील डौल में काफी तगड़े है उन्होंने दो दो परांठे और खाये। परांठो का स्वाद ठीक ठाक ही था और सबसे बड़ी बात भूख लगने पर सब कुछ अच्छा ही लगता है।

दारचा से लद्दाख की जंस्कार पर्वत श्रृंखला बहुत ही नजदीक है। जंस्कार कारगिल जिले की एक तहसील है जो कारगिल के पास पेन्सी ला से शुरू हो जाती है । जहाँ कारगिल में मुस्लिम आबादी ज्यादा है वही जंस्कार में बौद्ध धर्म का बोल बाला है। जंस्कार क्षेत्र एक काफी विस्तृत क्षेत्र है एक तरफ ये कारगिल से सटा हुआ है वही दूसरी तरफ इसकी सीमाएं हिमांचल के किन्नौर जिले से भी लगती है इसके अलावा जंस्कार के पहाड़  हिमांचल के लाहुल क्षेत्र के पहाड़ो से भी मेल मिलाप करते दिखते है। 

अगर दारचा से सड़क मार्ग द्वारा जंस्कार के प्रशासनिक नगर पदुम जाना हो तो पहले लेह फिर कारगिल और उसके बाद पेन्सी ला होते हुए पदुम जाने में करीब 780 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ेगी। और अगर दारचा से पदुम पैदल ट्रेक करके जाये तो यह दूरी केवल 100 किलोमीटर की ही होगी। ये अलग बात है कि इस दूरी को पैदल तय करने में सात आठ दिन लग जायेंगे। कुछ साहसी घुमक्कड़ इस ट्रैक को करते भी है। जाड़े के दिनों में जब पेन्सी ला बर्फ की वजह से बंद हो जाता है तो पदुम के बाशिन्दे लेह जाने के लिए जंस्कार नदी का सहारा लेते है। चूँकि जमी हुई नदी पर नाव तो चल नहीं सकती इसलिए वे जमी हुई जंस्कार नदी पर 105 किलोमीटर की ट्रैकिंग करते हुए लेह के पास चिलिंग नाम के गांव तक आते है। फिर वहां से साठ किलोमीटर दूर लेह तक सड़क मार्ग से जाते है। इस 105 किलोमीटर के ट्रेक को चादर ट्रेक के नाम से जाना जाता है।

दारचा में पेट पूजा और शरीर को थोड़ा आराम देने के बाद हम अपने अगले पड़ाव बारालाचा ला की तरफ बढ़ चले। 
दारचा 3360 मीटर की ऊंचाई पर है वहीं बारालाचा ला की ऊंचाई 4890 मीटर है।अगले चौवालीस किलोमीटर में हम 1530 मीटर की ऊंचाई अर्जित करने वाले थे। रास्ता अचानक से बहुत घुमावदार होने लगा और तीखी चढाई शुरू हो गई थी। उसपर से रही सही कसर रास्ते में पड़ने वाले पहाड़ी नालो ने पूरी कर दी। कही कई ये नाले बीस फुट चौड़े थे । हमारी गाड़ी चार पहियो की थी तो इन नालो में से आराम से निकल जाती थी पर दो पहिया वाहनों को इन नालो को पार करने में अपना पूरा दम लगाना पड़ता था। कभी कभी तो इन बाइक चालको को नाले के ठंडे पानी में उतर कर अपनी बाइको को  कर धक्का देना पड़ता था तब उनकी बाइक नाले से पार होती थी। अगर जरा सी असावधानी हो तो कई सौ फुट नीचे खाई में जाने का खतरा बना रहता था। 

बारालाचा ला से कुछ पहले ज़िंग ज़िंग बार नाम की एक जगह आतीं है यहाँ पर भी चाय नास्ते की कुछ दुकाने थी। यहाँ से चढाई और भी कठिन हो जाती है। रास्ते पर बर्फ की मोटी मोटी परते दिखानी शुरू हो जाती है। बारालाचा ला टॉप से थोड़ा पहले  सूरज ताल है। ये ताल भागा नदी का उद्गम स्थल है। जब हम बारालाचा ला टॉप पर पंहुचे तो वहां बहुत ज्यादा बर्फ थी।हमारी बर्फ देखने की मनोकामना पुरी हो रही थी। हमने गाड़ी को बारालाचा ला टॉप पर रुकवाया और जी भर के फोटोग्राफी की। उस समय दोपहर के तीन साढ़े तीन बज रहे थे और अच्छी धुप खिली हुई थी। मैंने केवल एक आधी आस्तीन की शर्ट पहनी हुई थी। पर उतनी बर्फ में मुझे ठण्ड नहीं लग रही थी। ऐसा शायद अच्छी धुप होने की वजह से था। यहाँ पर सैलानियों की भीड़ नहीं होने के कारण यहाँ जो बर्फ थी वो एक दम साफ़ थी। सबेरे रोहतांग में मामला इसके बिलकुल उल्टा था। एक तो वहां इतनी बर्फ नहीं थी और जो थी वो भी काली पड़ चुकी थी। 

पंद्रह मिनट बर्फ में मौज मस्ती करने के बाद हम वापस गाड़ी में बैठ गए और पहाड़ो पर लिपटी हुई बर्फ की चादरों को देखते हुए आगे बढ़ने लगे। अब हम बारालाचा के दूसरी तरफ उतर रहे थे। तभी दूर से ही नीचे की तरफ कुछ टेंट दिखाई पड़ने लगे। यहाँ से टेंट तक सड़क की हालत बहुत ही ख़राब थी रास्ते पर बर्फ की वजह से बहुत फिसलन थी। और सड़क के नीचे काफी गहरी खाई दिखाई दे रही थी। और खाई में गिरा एक ट्रक हमारे अंदर के डर को और बढ़ावा दे रहा था। पंद्रह मिनट में हम उन टेंटों तक पहुँच गए ये जगह भरतपुर सिटी के नाम से प्रसिद्ध है। इस जगह  के केवल नाम में ही सिटी है पर वास्तविकता में यहाँ केवल चार पांच टेंट ही थे जहाँ रहने और खाने की अच्छी व्यवस्था थी। यहाँ एक विविध वस्तुओं की दुकान भी थी जिसमे टोपी,जुराबें, शाल, दस्ताने और स्वेटर इत्यदि वस्तुएं भी मिल रही थी।  हमारे ड्राइवर ने ये सुझाव दिया की हमें रात को यही रुक जाना चाहिए। यहाँ एक बड़े से हॉल में तखत के ऊपर करीने से गद्दे लगे हुए थे और रजाइया भी थी। यहाँ प्रति व्यक्ति के एक रात सोने का किराया मात्र 150 रुपये था। मुझे यहाँ रुकने में कोई आपत्ति नहीं थी। 

मैं जब पिछली बार 2008 में यहाँ आया था तो मैं यहाँ से अड़तीस किलोमीटर आगे सरचू में रुका था। मेरे लिए इस नई जगह में रुकना एक नया अनुभव देने वाला था इसलिए मैं और विनोद दोनों यहाँ रुकने को राजी थे। हमारे हमसफ़र विदेशी सैलानियों को भी यहाँ रुकने से कोई आपत्ति नहीं थी। तभी राहुल ने ये एलान कर दिया कि वो यहाँ किसी भी कीमत पर रुकने वाला नहीं है। दरअसल कुछ साल पहले एक एक्सीडेंट में उसका पैर टूट गया था। उसे सुबह फ्रेश होने के लिए इंग्लिश कमोड की जरुरत पड़ती थी । इंडियन स्टाइल के शौचालय पर वह बैठ ही नहीं पता था। भरतपुर के इन टेंटों में इंग्लिश कमोड नहीं थे। पिछली यात्रा में सरचू रुकने के कारण मुझे ये पता था कि सरचू में स्विस टेंट लगे है जिनमे अटैच्ड बाथरूम भी है और उनमें इंग्लिश स्टाइल के कमोड भी है। हमने ड्राइवर को भरतपुर की जगह सरचू में रुकने को कहा थोड़ी ना नुकुर करने के बाद मेरे और विनोद के  समझाने पर वो मान गया। भरतपुर में चाय और बिस्किट खा कर हम सब सरचू की तरफ निकल पड़े। शाम के पांच बजे तक हम टेंट नगरी सरचू में थे। यहाँ हर प्रकार के टेंट उपलब्ध थे। हर एक टेंट वाले के पास पंद्रह से बीस टेंटों की कालोनी थी। ऐसी बहुत सी टेंट कालोनियाँ थी। हमारी गाड़ी ऐसी ही एक टेंट कालोनी के पास रुकी। हमने उस टेंट वाले से बात की।

"हांजी हमारे पास इंग्लिश कमोड वाले स्विस टेंट हैं।"
"टॉयलेट अटैच्ड है या कॉमन है?"
"सर जी स्विस टेंट में अटैच्ड टॉयलेट होता है।"
"हम तीन लोग है, रात भर रुकने का कितना लोगे?"
"आप लोग तीन आदमी हो तो दो हजार दे देना"
"अरे यार इतने महंगे तो लेह के होटल भी नहीं है।"
"सर, इसमे रात का खाना और सुबह का ब्रेकफास्ट भी इन्क्लुड है।"
"अरे यार हम कोई विदेशी तो है नहीं, इंडियन है वो भी स्टूडेंट,
ज्यादा से ज्यादा  आठ सौ दे पाएंगे।"
"अरे सर इतने में तो सिंपल टेंट भी नहीं मिलेगा, आप ऐसा करो पंद्रह सौ दे देना।"
"देखो हमारा बजट बिगड़ जायेगा, एक हजार ले लो।"
"क्या सर आप लोग भी, चलिये बारह सौ में बात पक्की"

हमने अपना सामान टेंट में रख दिया। वाकई में शानदार टेंट था। टेंट के बाहर कुर्सिया थी तो हम वही धुप में बैठ गए। हमारे बगल के टेंटों में साउथ अफ्रीका से आया हुआ एक दल रुका हुआ था। करीब पंद्रह लोग थे। वे लोग रॉयल एनफील्ड की  बाइक पे मनाली से यहाँ आये थे। उनके साथ एक टेम्पो ट्रेवलर भी थी जो बैकअप वैन का काम कर रही थी। इस वैन में उन्होंने अपना सारा सामान रख दिया था। वैन में उनके साथ में एक मैकेनिक भी आया था ताकि बाइक के ख़राब या पंचर होने की स्थिति में वो उसे ठीक कर सके। दिन ढलने के साथ ही ठण्ड ने अपना रौद्र रूप दिखाना शुरू कर दिया। मैंने अपने सारे ऊनी कपड़े पहन लिए फिर भी ठण्ड लग रही थी। रात के करीब आठ बजे टेंट वाला हमें  खाना खाने के लिए किचन में आने का न्योता दे गया। राहुल की तबियत खराब हो गई थी मेरे हिसाब से उसे एल्टीट्यूड सिकनेस हो गया था। ऐसा तब होता है जब आप कम ऊंचाई से अचानक अधिक ऊंचाई पर पहुँच जाते है। खैर उसने खाना खाने से साफ मना कर दिया और चुकि वो एक डॉक्टर है इसलिए अपने साथ लाई दवाइयों में से कोई दवाई खा के सो गया। 

मैं और विनोद टेंट से जैसे ही बाहर निकले ठण्ड की एक लहर ने हमें अंदर तक हिला दिया। किचेन करीब पचास मीटर दूर था। हम वहाँ तक दौड़ते हुए गए इससे हमारे शरीर में कुछ गर्मी आ गई। खाने में रोटी,सब्जी चावल और दाल था। एक संपूर्ण भोजन दिन भर के हिचकोलों भरी थकाऊ यात्रा के बाद। खाना बहुत ही स्वादिष्ठ था, हमने पेट भर के खाना खाया और किचन से बाहर आ गए। बाहर साउथ अफ्रीका का दल मनाली से अपने साथ लाई हुई लकड़ीयो से बॉन फायर कर रहा था। आग को देख कर हम अपने आप को रोक नहीं सके और हम भी वहाँ पहुँच गए। थोड़ी देर आग के पास बैठने के बाद हमें बहुत राहत मिली और हम अपने टेंट में आ कर सो गए। दो दो रजाइयों के वावजूद रात भर ठण्ड लगती रही।  इसका कारण बारालाचा दर्रे से आती हुई बर्फीली हवाएं थी जो सरचू के खाली मैदान में अपना कहर बरपा रही थी। रात में ज्यादा ऊंचाई (4290 मीटर) के कारण साँस लेने में भी दिक्कत हो रही थी और बार बार नींद खुल जाती थी, इतनी ऊंचाई पर ऑक्सीजन का लेवल मैदानी इलाकों से कम रहता है। कुल मिला के सरचू में रात काफी कष्टप्रद बीती।

आगे :- लद्दाख डायरी .... सरचू से लेह



दारचा में राहुल और विनोद उनके पीछे हमारी सवारी और टिन शेड वाला ढाबा।

दारचा से दिखता बारालाचा ला की बर्फीली चोटियाँ।

दारचा के ढाबे में।

बारालाचा ला पर अब ज़िंग ज़िंग बार से।

सूरज ताल ये फोटो चलती गाड़ी से लिया गया है।

बारालाचा ला टॉप।

टॉप पर मैं और राहुल

बारालाचा दर्रे से नीचे दिखती भरतपुर सिटी कृपया ज़ूम करके देखें।
भरतपुर में टेंट के सामने चाय और मल्टीपरपज चीजो की दुकान।

रास्ते में पहाड़ी नाला।

भरतपुर का टेंट।

सरचू का स्विस टेंट।

बारालाचा दर्रे पर मैं।

सरचू की टेंट कालोनी।


4 comments:

  1. बहुत शानदार यात्रा
    एक संपूर्ण जानकारियो के साथ लिखा हुआ लेख

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  2. धन्यवाद् महेश जी

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  3. धन्यवाद् हरविंदर जी

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